Wednesday 5 October 2011

निषेधाज्ञा

हमारे समाज में औरतों के लिये
निषेध है सब जैसे कि
उनका समाज में बोलना मना है
उनका अपने मन मुताबिक
रहना,चलना,खाना-पीना मना है।

वो यदि कुछ करतीं भी हैं तो
कम से कम एक पुरुष की सहमति
उस कार्य के लिये जरूरी है-
नहीं तो उनके कार्य फ़ालतू और
बातें बेहूदा होती हैं।

इस समाज में वे सच भी नहीं बोल सकतीं
यदि किसी के साथ दुराचार हुआ है तो
घर के ही पुरुष यदि चाहें तो वे बोलें
नहीं तो ज्यादातर वे चुप ही रह जाती हैं।

उनके द्वारा  सृष्टि बनती है लेकिन 
यह सच है कि उनका अपना कुछ नहीं है
वे हमेशा आश्रित ही रहीं हैं पुरुष की
और यदि वे अकेले रहने भी लगें तो
समाज उन्हें तरह-तरह के अलंकरणॊं से
सुसज्जित करने में  कोई कसर नहीं छोड़ता।

इन सब बातों के लिये भी ज्यादातर 
औरतें ही जिम्मेदार हैं
क्योंकि उसने ही पुरुष को 
परमेश्वर बनाया और 
वह पूरा इंसान भी न बन सका
और वह औरत पर भी हुकूमत करने लगा।
उसने परमेश्वर बनते ही स्त्रियों के लिये
आजीवन निषेधाज्ञा लागू कर दी।




















1 comment:

  1. ब्लाग लिखना शुरू करने की बधाई।
    कविता के भाव बहुत अच्छे लगे। खासकर ये पंक्तियां:
    इन सब बातों के लिये भी ज्यादातर
    औरतें ही जिम्मेदार हैं
    क्योंकि उसने ही पुरुष को
    परमेश्वर बनाया और
    वह पूरा इंसान भी न बन सका
    और वह औरत पर भी हुकूमत करने लगा।
    उसने परमेश्वर बनते ही स्त्रियों के लिये
    आजीवन निषेधाज्ञा लागू कर दी।

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